वह तोडती पत्थर ।
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर,
वह तोडती पत्थर ।
कोई न छायादार
पेड वह जिसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन ।
गुरु हथौडा हाथ।
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु मालिका, अट्टालिका प्राकार
चढ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन
चढ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन